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ख़ाक-ए-हिंद | शाही शायरी
KHak-e-hind

नज़्म

ख़ाक-ए-हिंद

तिलोकचंद महरूम

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अंजुम से बढ़ के तेरा हर ज़र्रा ज़ौ-फ़िशाँ है
जल्वों से तेरे अब तक हुस्न-ए-अज़ल अयाँ है

अंदाज़-ए-दिल-फ़रेबी जो तुझ में है कहाँ है
फ़ख़्र-ए-ज़माना तू है और नाज़िश-ए-जहाँ है

उफ़्तादगी में भी तो हम-औज-ए-आसमाँ है
''ऐ ख़ाक-ए-हिंद तेरी अज़्मत में क्या गुमाँ है''

वो कज-कुलाह तेरे वो सूरवीर तेरे
वो तेग़-ज़न कमाँ-कश वो क़िलअ-गीर तेरे

नापैद आज हैं गो ताज-ओ-सरीर तेरे
शाहों से हैं ज़ियादा लेकिन फ़क़ीर तेरे

पस्ती में सर-बुलंदी सब पर तिरी अयाँ है
''ऐ ख़ाक-ए-हिंद तेरी अज़्मत में क्या गुमाँ है''

मंज़र वो जाँ-फ़ज़ा हैं और दिल-पज़ीर तेरे
जानें हैं तुझ पे शैदा और दिल असीर तेरे

शीरीं ओ साफ़ दरिया हैं जू-ए-शीर तेरे
हैं दश्त-ओ-कोह-ओ-सहरा जन्नत-नज़ीर तेरे

आँखें जिधर उठाओ फ़िरदौस का समाँ है
''ऐ ख़ाक-ए-हिंद तेरी अज़्मत में क्या गुमाँ है''

तुझ को मिटा दिया है हर-चंद आसमाँ ने
फूँका है आह दिल को सोज़-ए-ग़म-ए-निहाँ ने

छोड़ी न ताब अपनी पर हुस्न-ए-दिल-सिताँ ने
जौहर भरे हैं तुझ में सन्ना-ए-दो-जहाँ ने

फ़स्ल-ए-ख़िज़ाँ है तेरी फिर भी तू गुल-फ़िशाँ है
''ऐ ख़ाक-ए-हिन्द तेरी अज़्मत में क्या गुमाँ है''

गो हद से बढ़ गया है रंज-ओ-मलाल तेरा
अब तक मिटा नहीं है नक़्श-ए-जमाल तेरा

आख़िर कभी तो होगा ज़ाहिर कमाल तेरा
होगा कभी तो आख़िर दौर-ए-ज़वाल तेरा

कब इक रविश पे क़ाएम ये दौर-ए-आसमाँ है
''ऐ ख़ाक-ए-हिंद तेरी अज़्मत में क्या गुमाँ है''