कभी दिल के अंधे कुएँ में
पड़ा चीख़ता है
कभी दौड़ते ख़ून में
तैरता डूबता है
कभी हड्डियों की सुरंगों में बत्ती जला कर
यूँही घूमता है
कभी कान में आ के
चुपके से कहता है तू अब तलक जी रहा है?
बड़ा बे-हया है!
मिरे जिस्म में कौन है ये
जो मुझ से ख़फ़ा है
नज़्म
कौन?
मोहम्मद अल्वी