ख़ुदाया! न मैं ने कहीं सर झुकाया
न दुनिया में एहसान अब तक किसी का उठाया
मिरे सर पे जब धूप ही धूप थी
उस घड़ी मैं न ढूँडा कहीं कोई साया
तो अब तू ही आ कर मिरी आबरू को बचा ले
यही एक तोहफ़ा है
जो मैं तिरे पा-ए-अक़्दस पे रख दूँगा
और ये कहूँगा
यही मेरी पूँजी, यही है कमाई
मुझे और कुछ भी अता कर न पाई
ये तेरी ख़ुदाई
ख़ुदाया!
मिरी नज़्र-ए-बे-माया को देख कर
जिस ख़ज़ाने में इस की जगह हो
अब वहाँ पर इसे डाल दे
नज़्म
कतबा(1)
ख़लील-उर-रहमान आज़मी