आज की रात भी फिर ख़्वाब जगाएँ गे मुझे
फिर वो करवट से ख़यालों के तसलसुल को मिटाने की कशीद-ए-कोशिश
जिस्म के दर्द को सिलवट में समो के
वही बिस्तर पे तड़पते हुए महजूरी-ए-जानाँ को
कभी आह कभी साँस की गहराई में शल करने की
सई-ए-नाकाम
ये भी मालूम है
ये नीम रस्सी फ़हम की दीवार तलक जस्त
ये साए की तस्वीर किसी शक्ल-ओ-शबाहत के तसलसुल के निशाँ हैं लेकिन
ना-सुबूरी ये बदन तोड़ती अंगड़ाइयाँ
होंटों पे महकती लर्ज़िश
बात को रब्त के आहंग में लाने की तलब
मेरे सीने का धुआँ आँखें शराबोर किए
हर बुन-ए-मू को मुलाक़ात का जूया कर दे
आँख चढ़ते हुए दरिया की तरह है पुर-आब
पाँव फिस्ले है तो फिर साँस का रिश्ता न रहे
हम तो चाहें मगर इस दिल को ये अच्छा न लगे
जाँ-कनी हद से बढ़ी चारागरो कुछ तो करो
नज़्म
कशीद शब
किश्वर नाहीद