ये कसाफ़तों की जो बुहतात है
इस से ख़ुद को
हम कहाँ तक बचाएँ
न तो साया-ए-गुम्बद
न खुले उजले सहन
एक बे-रंग सी
बे-रूह फ़ज़ा छाई है
सौत-ओ-आहंग नहीं
नोक-ए-सिनाँ उट्ठे हैं
अपनी आवाज़ को
मैं ख़ुद भी नहीं सुन सकता
नज़्म
कसाफ़त
अली ज़हीर लखनवी
नज़्म
अली ज़हीर लखनवी
ये कसाफ़तों की जो बुहतात है
इस से ख़ुद को
हम कहाँ तक बचाएँ
न तो साया-ए-गुम्बद
न खुले उजले सहन
एक बे-रंग सी
बे-रूह फ़ज़ा छाई है
सौत-ओ-आहंग नहीं
नोक-ए-सिनाँ उट्ठे हैं
अपनी आवाज़ को
मैं ख़ुद भी नहीं सुन सकता