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कराची के मुशाएरे में डाका | शाही शायरी
karachi ke mushaere mein Daka

नज़्म

कराची के मुशाएरे में डाका

खालिद इरफ़ान

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ये किस ने बज़्म-ए-अदब के सुकून को ताका
मुशायरों में भी पड़ने लगा है अब डाका

मुशाएरे में डकैती का शौक़ रखते हैं
हमारे अहद के डाकू भी ज़ौक़ रखते हैं

अदब-नवाज़ थे डाकू सुख़न-शनास थे वो
मिरे वतन की सियासत का इक़्तिबास थे वो

अजब डकैत थे जिन का नसीब फूटा था
जिन्हों ने शहर के इन मुफ़लिसों को लूटा था

पड़ा वो रन कि इक उस्ताद शेर भूल गया
किसी नहीफ़ से शाएर का साँस फूल गया

बयाज़ अपनी किसी ने उछाल कर रख दी
बजाए कैश रुबाई निकाल कर रख दी

उधर डकैत सँभाले थे गन उड़ाई हुई
उधर वो पेल रहा था ग़ज़ल चुराई हुई

ये किस ने बज़्म-ए-सुख़न लूट ली ख़ुदा जाने
''तमाम शहर ने पहने हुए हैं दस्ताने''

मुशाएरे में न सोना था और न चाँदी थी
सुख़न-वरों की तो हर चीज़ ही पुरानी है

जो सब से क़ीमती शय है वो शेरवानी है
ये अपने शेर सुनाते ही फूट लेते हैं

मुशाएरे को तरन्नुम से लूट लेते हैं
हमारे शेर सुनें और शेर-बीं हो जाएँ

ख़ुदा करे कि ये डाकू भी सामईं हो जाएँ