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कराँ-ता-कराँ | शाही शायरी
karan-ta-karan

नज़्म

कराँ-ता-कराँ

वज़ीर आग़ा

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जो मज़ा चाहत में है
हासिल में उस को ढूँढना बे-कार है

हो कहाँ तुम किस जहाँ में
क्यूँ मुझे मालूम हो?

धुँद में हो ख़्वाब में
या आसमाँ की क़ौस में

या मौज की गर्दिश में हो
तुम हाथ की रेखा के अंदर हो कहीं

या दूर सन्नाटों के टकराव से पैदा
अन-सुनी आवाज़ की रेज़िश में हो

चाहे कहीं भी हो
मिरी चाहत के फैले बाज़ुओं के

हल्क़ा-ए-मौहूम में मौजूद हो!
लम्स में हिद्दत बहुत है

और सितारों की चुभन का भी मुझे एहसास है
बंद मुट्ठी में दबे मोती

की लज़्ज़त से भी हूँ मैं आश्ना
पर बयाँ कैसे करूँ

वो लुत्फ़ जो चाहत की फैली बॉस की
मदहोश-कुन ठंडक में है

चाहत के हर दम
फैलते आफ़ाक़ की लर्ज़िश में है!!