मैं सदक़े तिरे हक़ के प्यारे कनहैया
ज़मीं पर ख़ुदा के उतारे कनहैया
नहीं एक गोकुल पे मौक़ूफ़ जल्वे
तिरे हर कहीं हैं नज़ारे कनहैया
मज़ा तो यही है तिरी मा'रिफ़त का
कि हर क़ौम समझे हमारे कनहैया
वही तो हैं बस ज़िंदा-दार-ए-मोहब्बत
तिरे इश्क़ के जो हैं मारे कनहैया
जफ़ा-ओ-सितम के अँधेरों में मिल कर
बने ख़ल्क़ में चाँद तारे कनहैया
मिली है उन्हें को तो राह-ए-हक़ीक़त
चले हैं जो तेरे सहारे कनहैया
अजब क्या मज़ालिम की तारीकियों में
ज़माना तुझे फिर पुकारे कनहैया
जो हैं आज भी हक़-परस्ती के महरम
वो ज़िंदा हैं तेरे सहारे कनहैया
न दिल 'कंस' है और न वो दौर 'अफ़्कर'
मगर रह गए हक़ के प्यारे कनहैया
नज़्म
कनहैया
अफ़क़र मोहानी