मिले हम जो अब के कई साल ब'अद
तुम्हें भी मलामत मुझे भी मलाल
तुम्हारे भी चेहरे के फीके थे रंग
मेरा चेहरा जैसे भटकता मलंग
कई राज़ चुप की सदाओं में थे
हमारी सुलगती वफ़ाओं में थे
अजब वक़्त ओ मंज़र अजब माह-ओ-साल
न कोई जवाब और न कोई सवाल
बड़ी कोशिशें की कि इक हो सकें
ज़रा खुल के हँस लें ज़रा रो सकें
गुज़िश्ता के कुछ तो निशाँ धो सकें
मगर अब ये मुमकिन कहाँ था 'नदीम'
न पहले से दिन थे न पहले सी रात
न पहले से लहजे न पहले सी बात
न पहले सा हम पे मोहब्बत का जाल
न पहले सा जीवन न ही माह-ओ-साल
नज़्म
कई साल ब'अद
नदीम गुल्लानी