EN اردو
कैफ़ से ख़ुमार तक | शाही शायरी
kaif se KHumar tak

नज़्म

कैफ़ से ख़ुमार तक

महबूब ख़िज़ां

;

वो हसीन थी मह-ए-जबीन थी
बे-गुमान थी बे-यक़ीन थी

ज़िंदगी की नरम नरम आहटें
बे-सबब यूँही मुस्कुराहटें

उँगलियों में बाल को लपेटना
दामन-ए-ख़याल को लपेटना

हर घड़ी वही मिलने वालियाँ
बे-ख़यालियां ख़ुश-ख़यालियां

नर्म उलझनें कम-सिनी के ख़्वाब
अंग अंग में छेड़ा इंक़लाब

मुँह पर ओढ़नी जी कभी नहीं
मैं तो आप से बोलती नहीं

और फिर हया ज़िंदगी की मार
मा'रिफ़त का बोझ जब्र-ओ-इख़्तियार

एक जान और सैंकड़ों वबाल
जिस्म की दुखन रूह का ख़याल

ज़िंदगी बढ़ी रौशनी लिए
रौशनी बढ़ी तीरगी लिए

इंकिसार में इक ग़ुरूर सा
कुछ ख़ुमार सा कुछ सुरूर सा

दाएरे यहाँ दाएरे वहाँ
रक़्स में नज़र रक़्स में जहाँ

गुफ़्तुगू में बल ख़ामुशी में लोच
रात करवटें करवटों में सोच

दिल बुझा बुझा तिश्नगी की आँच
अजनबी थकन ज़िंदगी की आँच

उस के काम आएँ उस का दुख बटाएँ
उस को छेड़ दें और मुस्कुराएँ

उस की आँख में कितना दर्द है
रंग ज़र्द है रूह ज़र्द है

वो उदास है क्यूँ उदास है
उस की ज़िंदगी किस के पास है

ये गुनाह क्यूँ भूल क्यूँ नहीं
बाग़ में तमाम फूल क्यूँ नहीं