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कहानी | शाही शायरी
kahani

नज़्म

कहानी

वज़ीर आग़ा

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अजब दिन थे वो
झाड़ियाँ आग के झुण्ड काई-ज़दा ताल

जिन के किनारे हज़ारों बरस से खड़े
जनड और वन के ढाँचे

फुलाई के फरवां के जंगल जो धरती पे बिछ से गए थे
उदासी हुआ बन के फिरती थी

और सुन्नत साधू
पुराने दरख़्तों के नीचे बिछी घास पर

आलती पालती मार कर बैठते थे
ख़ुद अपने ही अंदर के तारीक जंगल का हिस्सा बने थे

अजब दिन थे वो
जब भी कुछ कहना चाहा

घुसे मुर्दा लफ़्ज़ों की कोई कुमक तक न आई
जो आई तो फिर होंट सिल से गए

और आँखें
न कह सकने के कर्ब में मुब्तला हो के

अपने ही हल्क़ों से बाहर निकल आएँ रिसने लगीं
और फिर एक दिन

ऊँचे-नीचे पहाड़ों से होता हुआ वो
यहाँ आ के ठहरा

यहाँ आ के उस ने
मुअम्मर-तरीन वन के नीचे वो शो'ला जगाया

कि जिस में भस्म हो गए सब ये वन झुण्ड फरवां फुलाई
हवा हो गए सुन्नत-साधू कटी झाड़ियाँ

और काई-ज़दा ताल धरती के नासूर
अब उन का नाम-ओ-निशाँ भी नहीं था

तब उस ने
मुक़द्दस असा से वो जादू जगाया कि सारी फ़ज़ा सैल-ए-अनवार में बह गई

घोंसलों और फूलों में ढलती गई ये ज़मीं
चहचहों ख़ुशबुओं से हवा अट गई

आज वो लौट कर जा चुका है
तो फिर काली धरती के अंदर से आग आए हैं

जंड के पेड़ काँटों-भरी झाड़ियाँ
फिर से रिसने लगे हैं

वो काई-ज़दा ताल
जिन के अंदर से

मनहूस साधू निकल कर किनारों पे बैठे हुए हैं
उदासी हुआ बन के फिरने लगी है

किसी ने अलाव पे भारी क़दम क्या रखा है
अँधेरे का बोझल सा पट खुल गया है

फ़ज़ा बुझ गई है
फ़ज़ा बुझ गई है

मगर कोर आँखों को कैसे दिखाऊँ
कि उस भारी पाँव के नीचे

अँधेरे के बोझल से इस पट के पीछे
किरन अपने बस्तों पे लिपटी हुई है

सुनहरी से इक बीज में सो रही है