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कहाँ रौज़न बनाएँ | शाही शायरी
kahan rauzan banaen

नज़्म

कहाँ रौज़न बनाएँ

जावेद अनवर

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वही क़स्में शब-ए-ना-मो'तबर की
वही रस्में हैं शहर-ए-संग-दिल की

वही दीवार-ए-बे-रौज़न कि जिस को
ज़बानें दिन ढले तक चाटती हैं

किसे पूछें बिरुन-ए-सहन क्या है
कहाँ किस खेत में गंदुम उगी है

कहाँ किस झील में सूरज गिरा है
कहाँ हैं तेरी ज़िरहें मेरी ढालें

कहाँ वो चाँद है जिस की तलब में
ख़ला में फेंक दीं चेहरों ने आँखें

कहाँ है इस घनी दीवार-ए-शब में
इकहरी ईंट की चुनवाई पूछें

कहाँ से कोई ख़िश्त-ए-ग़म उखाड़ें
कहाँ दीवार में रौज़न बनाएँ