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कड़े कोस | शाही शायरी
kaDe kos

नज़्म

कड़े कोस

किश्वर नाहीद

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हर्फ़
गोयाई की ज़ंजीर में जब क़ैद हुआ

इस्म बना
अहद बना

नज़्म बना
क़िस्सा-ए-काम-ओ-दहन का ग़म-ए-मतलूब बना

ख़ूब-ओ-ना-ख़ूब बना
हर्फ़-ए-ना-गुफ़्ता

मगर ज़ेहन का आज़ार बना
दिल की दीवार बना

राह-ए-दुश्वार बना
क़िस्सा-ए-शौक़ की वारफ़्ता कहानी न बना

हीला-ए-वस्ल की ग़म-दीदा निशानी न बना
वार है मंज़िल-ए-गोयाई

सभी जानते हैं
हर्फ़-ए-ना-गुफ़्ता के ये ज़ख़्म मगर मेरे हैं

जिन को तन्हाई मिरी
मुझ से सिवा जानती है