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कातिक का चाँद | शाही शायरी
katik ka chand

नज़्म

कातिक का चाँद

इब्न-ए-इंशा

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चाँद कब से है सर-ए-शाख़-ए-सनोबर अटका
घास शबनम में शराबोर है शब है आधी

बाम सूना है, कहाँ ढूँडें किसी का चेहरा
(लोग समझेंगे कि बे-रब्त हैं बातें अपनी)

शेर उगते हैं दुखी ज़ेहन से कोंपल कोंपल
कौन मौसम है कि भरपूर हैं ग़म की बेलें

दूर पहुँचे हैं सरकते हुए ऊदे बादल
चाँद तन्हा है (अगर उस की बलाएँ ले लें?)

दोस्तो जी का अजब हाल है, लेना बढ़ना
चाँदनी रात है कातिक का महीना होगा

मीर-ए-मग़्फ़ूर के अशआर न पैहम पढ़ना
जीने वालों को अभी और भी जीना होगा

चाँद ठिठका है सर-ए-शाख़-ए-सनोबर कब से
कौन सा चाँद है किस रुत की हैं रातें लोगो

धुँद उड़ने लगी बुनने लगी क्या क्या चेहरे
अच्छी लगती हैं दिवानों की सी बातें लोगो

भीगती रात में दुबका हुआ झींगर बोला
कसमसाती किसी झाड़ी में से ख़ुश्बू लपकी

कोई काकुल कोई दामन, कोई आँचल होगा
एक दुनिया थी मगर हम से समेटी न गई

ये बड़ा चाँद चमकता हुआ चेहरा खोले
बैठा रहता है सर-ए-बाम-ए-शबिस्ताँ शब को

हम तो इस शहर में तन्हा हैं, हमीं से बोले
कौन इस हुस्न को देखेगा ये इस से पूछो

सोने लगती है सर-ए-शाम ये सारी दुनिया
इन के हुजरों में न दर है न दरीचा कोई

इन की क़िस्मत में शब-ए-माह को रोना कैसा
इन के सीने में न हसरत न तमन्ना कोई

किस से इस दर्द-ए-जुदाई की शिकायत कहिए
याँ तो सीने में नियस्तां का नियस्तां होगा

किस से इस दिल के उजड़ने की हिकायत कहिए
सुनने वाला भी जो हैराँ नहीं, हैराँ होगा

ऐसी बातों से न कुछ बात बनेगी अपनी
सूनी आँखों में निराशा का घुलेगा काजल

ख़ाली सपनों से न औक़ात बनेगी अपनी
ये शब-ए-माह भी कट जाएगी बे-कल बे-कल

जी में आती है कि कमरे में बुला लें इस को
चाँद कब से है सर-ए-शाख़-ए-सनोबर अटका

रात उस को भी निगल जाएगी बोलो बोलो
बाम पर और न आएगा किसी का चेहरा