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कार-ए-जहाँ दराज़ है | शाही शायरी
kar-e-jahan daraaz hai

नज़्म

कार-ए-जहाँ दराज़ है

शहराम सर्मदी

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कोई ऐसा शग़्ल तो हो ज़ीस्त करने का
जिसे वाजिब सा कोई नाम दे दें

ख़्वाह इस में क़िस्सा-ए-रंग-ए-परीदा की
कोई तमसील ढूँडें या किसी इक याद को

वो इस्म दे दें जो गुज़रते वक़्त का
कोई भला उनवान तय पाए

कोई मिसरा कहें ताज़ा जो अपने आप में कामिल नज़र आए
अगर ऐसा नहीं मुमकिन तो कोई क़हक़हा

लम्बा सा पूरा क़हक़हा फिर
हम किसी इक शग़्ल में मशग़ूल रहना चाहते हैं