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कार-ए-बेहूदा | शाही शायरी
kar-e-behuda

नज़्म

कार-ए-बेहूदा

शहराम सर्मदी

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अपने होने
और न होने में

ख़ुशी की ग़म की इत्मीनान की तहक़ीक़
बे-मसरफ़ है

और इक सई-ए-ला-हासिल के सिवा कुछ भी नहीं
ये ज़िंदगी

इक जंग-ए-तहमीली है
और मैं

बे-नतीजा जंग का सर-बाज़ हों कोई
जो बेहूदा सवालों से

अज़ल से बर-सर-ए-पैकार
अबद-आसार ना-पैदा

माइल
तार-ए-अबरेशम

वजूद
इक किर्म की मानिंद

ग़ाएब हो रहा है दम-ब-दम
ये भी ग़नीमत था मगर

रेशम के ख़्वाहाँ ही कहाँ बाक़ी
कभी ये सोचता हूँ मैं

किसी गोशे में बैठूँ
और रुजूअ' इक मर्द-ए-कामिल से करूँ

लेकिन
मुझे भी तो ये पहले जानना होगा

तिफ़्ल-ए-अक़्ल
क्यूँ अज़-बल्ख़ ता-ब-क़ौनिया

यूँ ख़्वाब में डूबा रहा
या फिर

इसी एक याद को उनवान दे दूँ ज़ीस्त का
तो नौ-दमीदा वो कली

शामिल हुई या की गई
जो ज़िंदगी में

जिस की ख़ुश्बू ने मिरे घर को महक से भर दिया
तूती-ए-ख़ुश-रंग-ओ-इल्हाँ की चहक से भर दिया

मैं इक मुहक़क़िक़ भी रहा हूँ
हफ़्त-साला दौरा-ए-तहक़ीक़ का

हासिल यही है
सर-ब-ज़ानू दम-ब-ख़ुद हूँ

आख़िरश सादिक़-हिदायत
ख़ुद-कुशी से चाहता क्या था

नतीजा सिफ़्र है
ये कार-ए-बेहूदा

यूँही होता रहा है
बे-सबब होता रहेगा