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जूही का पौदा | शाही शायरी
juhi ka pauda

नज़्म

जूही का पौदा

राही मासूम रज़ा

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मैं इक जूही का पौदा हूँ
ये भी मुझ को याद नहीं है

मैं इस राहगुज़र पर कब से
बस यूँ ही ख़ामोश खड़ा हूँ

मुझ से ये पूछा न किसी ने
कैसे हो क्या सोच रहे हो

क्यूँ आख़िर ख़ामोश खड़े हो
जैसे उन्हीं की तरह मैं ख़ुद भी

इस आबाद हसीं दुनिया की
वहदत का हिस्सा ही नहीं हूँ

जैसे मैं ज़िंदा ही नहीं हूँ
मेरे लफ़्ज़ों की शाख़ों से

यादों की कुछ कलियाँ ले लें
मेरे रंग-बिरंगे नाज़ुक

ख़्वाबों की पंखुड़ियाँ ले लें
क्या मेरा अंजाम यही है

क्या बस मेरा काम यही है
अपने ख़ून-ए-दिल से यूँही

राहों पर मैं फूल खिलाऊँ
और जो चाहे लूट ले मुझ को

मैं ख़ामोश रहूँ लुट जाऊँ
रुक कर कोई ये भी न पूछे

कैसे हो क्या सोच रहे हो
क्यूँ आख़िर ख़ामोश खड़े हो