EN اردو
जुदाई की पहली रात | शाही शायरी
judai ki pahli raat

नज़्म

जुदाई की पहली रात

परवीन शाकिर

;

आँख बोझल है
मगर नींद नहीं आती है

मेरी गर्दन में हमाइल तिरी बाँहें जो नहीं
किसी करवट भी मुझे चैन नहीं पड़ता है

सर्द पड़ती हुई रात
माँगने आई है फिर मुझ से

तिरे नर्म बदन की गर्मी
और दरीचों से झिझकती हुई आहिस्ता हवा

खोजती है मिरे ग़म-ख़ाने में
तेरी साँसों की गुलाबी ख़ुश्बू!

मेरा बिस्तर ही नहीं
दिल भी बहुत ख़ाली है

इक ख़ला है कि मिरी रूह में दहशत की तरह उतरा है
तेरा नन्हा सा वजूद

कैसे उस ने मुझे भर रक्खा था
तिरे होते हुए दुनिया से तअल्लुक़ की ज़रूरत ही न थी

सारी वाबस्तगियाँ तुझ से थीं
तू मिरी सोच भी, तस्वीर भी और बोली भी

मैं तिरी माँ भी, तिरी दोस्त भी हम-जोली भी
तेरे जाने पे खुला

लफ़्ज़ ही कोई मुझे याद नहीं
बात करना ही मुझे भूल गया!

तू मिरी रूह का हिस्सा था
मिरे चारों तरफ़

चाँद की तरह से रक़्साँ था मगर
किस क़दर जल्द तिरी हस्ती ने

मिरे अतराफ़ में सूरज की जगह ले ली है
अब तिरे गिर्द मैं रक़्सिंदा हूँ!

वक़्त का फ़ैसला था
तिरे फ़र्दा की रिफ़ाक़त के लिए

मेरा इमरोज़ अकेला रह जाए
मिरे बच्चे, मिरे लाल

फ़र्ज़ तो मुझ को निभाना है मगर
देख कि कितनी अकेली हूँ मैं!