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जो मेरे मरने का तमाशा नहीं देखना चाहती | शाही शायरी
jo mere marne ka tamasha nahin dekhna chahti

नज़्म

जो मेरे मरने का तमाशा नहीं देखना चाहती

अहमद आज़ाद

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मैं जिस दिन पैदा हुआ
उसी दिन से मर रहा हूँ

वो तबले पर प्याले में
तल्ख़ महलूल रखा था

अब नहीं है
वो इक दरिया बहता था

उसे ख़ुश्क कर दिया गया है
वो छत से रस्सी टँगी थी

हटा दी गई है
मैं तमाम उम्र अपनों के नर्ग़े में रहा हूँ

मुझे मेरा प्याला
मेरा दरिया

मेरी रस्सी
थोड़ी देर के लिए

वापस किए जाएँ
मैं उस पियाले को तोड़ कर

उस की मिट्टी से
एक दिल बनाऊँगा

जिस में कोई तल्ख़ याद नहीं होगी
मैं दरिया में अपने ख़्वाब डाल दूँगा

उन्हें मेरी ज़रूरत नहीं
मैं रस्सी से

उस कश्ती को बाँधूंगा
जिस में एक औरत

फूलों की टोकरी लिए
बैठी है

जो मेरे मरने का तमाशा नहीं देखना चाहती