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जिस्म के अंदर जिस्म के बाहर | शाही शायरी
jism ke andar jism ke bahar

नज़्म

जिस्म के अंदर जिस्म के बाहर

तबस्सुम काश्मीरी

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मैं ने ज़मीं की तपती रगों पे हाथ धरे हैं
मैं ने ज़मीं की तपती रगों से

तपते लहू को उबलते देखा है
उन रस्तों पे उन गलियों पे

पत्थर जैसी सख़्त हवा के
सुर्ख़ धमाके देखे हैं

रात की मुतवर्रिम घड़ियों में
ज़र्द मकानों के सेहनों में

लहू को गिरते देखा है
क़तरा क़तरा क़तरा

क़तरा क़तरा बनते बनते एक समुंदर
इक बे-पायाँ तपता सुर्ख़ समुंदर

ज़र्द मकानों की रग रग में
तपता सुर्ख़ समुंदर

उन गलियों की बूढ़ी छाल पे इफ़्रीतों के हमले
तपती ज़मीं के सातवीं तलवे तक लहराती अंधी चीख़ें

कितनी ही ज़ालिम सदियों से
अंधी चीख़ें मेरे तपते जिस्म के जलते ख़लियों

ज़र्द मसामों के दर्रों में भटक रही हैं
चीख़ें मेरे जिस्म की इक इक रग में यूरिश करती हैं

नफ़रत का तीखा लशकारा जिस्म को काटता रहता है
जिस के अंदर जिस्म के बाहर

ख़ून का अंधा लावा बहता रहता है