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जश्न-ए-आज़ादी | शाही शायरी
jashn-e-azadi

नज़्म

जश्न-ए-आज़ादी

क़तील शिफ़ाई

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मेंह बरसता है तो धरती की नज़र झूमती है
फूल खिलते हैं तो गुलशन पे निखार आता है

लेकिन ऐ जश्न-ए-बहाराँ के नए मंतज़िमो
ख़ुद-फ़रेबी से कहीं दिल को क़रार आता है

तुम अगर जश्न-ए-बहाराँ भी कहोगे इस को
मौत के घाट ये धोका भी उतर जाएगा

बाद-ए-सरसर को अगर तुम ने कहा मौज-ए-नसीम
इस से मौसम में कोई फ़र्क़ नहीं आएगा

ये गुलिस्ताँ ये गुलिस्ताँ में सिसकते ग़ुंचे
अपने आमाल के पर्दे में इन्हें ढाँप तो लो

इक़्तिदार आज भी सरगर्म-ए-सफ़र है लेकिन
बे-नवाओं के इरादों को ज़रा भाँप तो लो

आज इंसान की अज़्मत ने किया है एलान
ख़ुद-फ़रेबी से कोई जी को न बहलाएगा

जब तक आराइश-ए-गुलज़ार नहीं हो जाती
किसी कोंपल किसी ग़ुंचे को न चैन आएगा

लेकिन ऐ जश्न-ए-बहाराँ के नए मुंतज़िमो
ये तमाशा हमें बे-कार नज़र आता है

मेंह बरसता है न धरती की नज़र झूमती है
फूल खिलते हैं न गुलशन पे निखार आता है