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जरस-ए-गुल की सदा | शाही शायरी
jaras-e-gul ki sada

नज़्म

जरस-ए-गुल की सदा

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

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इस हवस में कि पुकारे जरस-ए-गुल की सदा
दश्त-ओ-सहरा में सबा फिरती है यूँ आवारा

जिस तरह फिरते हैं हम अहल-ए-जुनूँ आवारा
हम पे वारफ़्तगी-ए-होश की तोहमत न धरो

हम कि रुम्माज़-ए-रुमूज़-ए-ग़म-ए-पिन्हानी हैं
अपनी गर्दन पे भी है रिश्ता-फ़गन ख़ातिर-ए-दोस्त

हम भी शौक़-ए-रह-ए-दिलदार के ज़िंदानी हैं
जब भी अबरू-ए-दर-ए-यार ने इरशाद किया

जिस बयाबाँ में भी हम होंगे चले आएँगे
दर खुला देखा तो शायद तुम्हें फिर देख सकें

बंद होगा तो सदा दे के चले जाएँगे