कीड़े पेड़ों के जंगल में
पत्तों की काली दीवारें
दीवारों में लाखों रौज़न
रौज़न आँखें हैं जंगल की
वहशी आँखें हैं जंगल की
तू राही अंजान मुसाफ़िर
जंगल का आग़ाज़ न आख़िर
सब रस्ते नापैद हैं उस के
सब राहें मसदूद सरासर
तू राही जुगनू सा पैकर
हार चुका जंगल से लड़ कर
अब आँसू का दिया जलाए
तो गुम-कर्दा-राह मुसाफ़िर
ऐसी पागल नज़रों से क्यूँ
औज-ए-फ़लक की पेशानी पर
झिलमिल करते उस झूमर को
घूर रहा है
नज़्म
जंगल
वज़ीर आग़ा