एक अजीब सा जंगल है इस शहर के बीच उग आया
घना मुहीब और गहरा जिस की ख़ूब घनेरी छाया
यूँ लगता है जैसे मेरे भीतर का इक साया
इक दिन पहले कहीं नहीं था ऐसा सब्ज़ अँधेरा
ऊँची शाख़ों की परतों का गुम्बद जैसा घेरा
देखूँ फिर हैरान रहूँ इस शहर में ऐसा डेरा
काँटों वाले ज़हर भरे बल खाते शाख़चे आगे
पीछे हटते जाएँ रस्ते जंगल जैसे भागे
जिस भी रुख़ पर पाँव धरूँ उस दिल में डर सा जागे
मेरे पैर के नीचे से इक शाख़ नई उग आए
तुम तक जाता हर इक रस्ता ऐसे रुकता जाए
क्यूँ कर मुझ को मिलने दें फिर ख़ौफ़ के बोझल साए
नज़्म
जंगल
अम्बरीन सलाहुद्दीन