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जंग का अंजाम | शाही शायरी
jang ka anjam

नज़्म

जंग का अंजाम

मीराजी

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बहू कहे ये बुढ़िया मेरी जान की लागू बन के रहेगी
सास कहे गज़-भर की ज़बाँ है अपनी मुँह आई ही कहेगी

बहू कहे जब देखो जब ही ख़्वाही नख़्वाही बात बढ़ाना
सास पुकारे ऐ मिरे अल्लाह तौबा भली अब तू ही बचाना

बहू कहे अपना घर कैसा याँ तो अपने भी हैं पराए
सास कहे जल-भुन के उसे तो राज-महल भी रास न आए

बहू कहे जिस के हाथों है डोई उसी का सब कोई है
सास पुकारे जाओ जी जाओ पाँव की जूती सर पे चढ़ी है

बहू कहे मुझ जन्म-जली को किस के पल्ले बाँध दिया है
सास कहे अब कौन बताए आगे जो आया है किस का क्या है

बहू कहे ये पूत की दर्दी बस जो चले तो बिस ही खिला दे
सास कहे वो बात है अपनी गाली सुने और फिर भी दुआ दे

बहू कहे अब सर पे पड़ी है जैसे भी हो गुज़र जाएगी
सास कहे जब देखो इस को दूध मलीदा ही खाएगी

बहू कहे जी जो आता था सास के सामने बोल रही थी
सास भी लेकिन तुर्की-ब-तुर्की भेद बहू के खोल रही थी

नन्हे ने ये मौक़ा ताड़ा झट बावर्ची-ख़ाने पहुँचा
दूध पे आई थी जो मिलाई चुपके से उस को खाने पहुँचा

खा के जो लौटा राह में उस ने काली बिल्ली जाते पाई
देख के उस को डर के मारे ज़ोर की उस ने चीख़ लगाई

एक ही चीख़ ने उस की पल में सास बहू का झगड़ा चुकाया
दौड़ी बहू मिरे लाल हुआ क्या सास पुकारी हाए ख़ुदाया