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जैसे फ़साना ख़त्म हुआ | शाही शायरी
jaise fasana KHatm hua

नज़्म

जैसे फ़साना ख़त्म हुआ

राज नारायण राज़

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कमरे की ख़ामोश फ़ज़ा में
इक मानूस सी ख़ुश्बू थी

महकी साँसों का सरगम था
कंचन का या क़ुर्ब की हिद्दत से निखरी थी

सूरज की एक एक किरन उजली थी
पलकें बोझल, आँखें बंद, हवास मुसख़्ख़र

चढ़ती धूप में इक नशा था
इस का फ़साना इक लिखना था

कमरे की ख़ामोश फ़ज़ा ख़ाली थी
क़ुर्ब की ख़ुश्बू

कंचन काया
साँस के सरगम

सब तहलील हुए थे
जैसे फ़साना ख़त्म हुआ था

ढलती धूप में ज़हर बुझा था
वो बैठा था

जैसे हारी फ़ौज से बिछड़ा एक सिपाही
अपनी पसपाई पर गुम-सुम

जिस्म के ऊपर तेग़ से लिखी तहरीरों पर नादिम
सोच रहा हो ज़ख़्म शुमारी से क्या हासिल

इक झोंका था तेज़ हवा का आया और गया
वो पत्थर के बुत की सूरत, बिल्कुल बेहिस बैठा था

रात का लम्बा गहरा साया फैल गया था