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जहाँ हम लोग रहते हैं | शाही शायरी
jahan hum log rahte hain

नज़्म

जहाँ हम लोग रहते हैं

अबु बक्र अब्बाद

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अबू-बक्र abbaad
जहाँ हम लोग रहते हैं

वहाँ अच्छे-भले लिखे-पढ़े ही लोग बस्ते हैं
इमारत-ए-इल्म और दौलत की अज़्मत हुस्न को दो-बाला करती है

तबस्सुम मुस्कुराहट हाय-हेलो और ब-ज़ाहिर ख़ुश-दिली की बारिश होती है
कि जिस तेज़ी से याँ फैशन बदलता है

ग़ुरूर-ए-हुस्न और
ज़ेहन-ओ-दिल की साख़्त भी तब्दील होती है

रिज़ालत बुज़दिली और असबियत को याँ
उम्दा कपड़ों अच्छे चेहरों में छुपाते हैं

मगर जब गाँव जाते हैं
वहाँ के कच्चे घर खेतों में बाग़ों में ज़रा आराम करते हैं

उछलते-कूदते बच्चों को आज़ादी से मर्द-ओ-ज़न को हँसते-बोलते जब देख आते हैं
कि हर ग़म और ख़ुशी अच्छे-बुरे हालात में वो सच्चे दिल से साथ रहते हैं

न अपने ज़ाहिर-ओ-बातिन में कोई भेद रखते हैं
जो नफ़रत है तो नफ़रत है मोहब्बत दिल से करते हैं

कि मन में जो भी होता है ज़बाँ से साफ़ कहते हैं
मगर फिर लौट कर जब शहर आते हैं

अमीरों आलिमों और अफ़सरों के बीच रहते हैं
तो ये महसूस होता है

कि हम बीमार हैं लाचार हैं तन्हा और क़ल्लाश हैं
जहाँ हम लोग रहते हैं

वहाँ सारे ही ऐसे लोग बस्ते हैं