तुझे इज़हार-ए-मोहब्बत से अगर नफ़रत है
तू ने होंटों को लरज़ने से तो रोका होता
बे-नियाज़ी से मगर काँपती आवाज़ के साथ
तू ने घबरा के मिरा नाम न पूछा होता
तेरे बस में थी अगर मशअ'ल-ए-जज़्बात की लौ
तेरे रुख़्सार में गुलज़ार न भड़का होता
यूँ तो मुझ से हुईं सिर्फ़ आब-ओ-हवा की बातें
अपने टूटे हुए फ़िक़्रों को तो परखा होता
यूँही बे-वज्ह ठिटकने की ज़रूरत क्या थी
दम-ए-रुख़्सत मैं अगर याद न आया होता
तेरा ग़म्माज़ बना ख़ुद तिरा अंदाज़-ए-ख़िराम
दिल न सँभला था तो क़दमों को सँभाला होता
अपने बदले मिरी तस्वीर नज़र आ जाती
तू ने उस वक़्त अगर आइना देखा होता
हौसला तुझ को न था मुझ से जुदा होने का
वर्ना काजल तिरी आँखों में न फैला होता
नज़्म
इज़हार
अहमद नदीम क़ासमी