हुनर-मंद हाथों की मिट्टी से
मैं ने बनाया
जो बहते हुए पानियों पे मकाँ
तो सच ये
ज़माने को कड़वा लगा
मैं कि मज़दूर था
एक मजबूर था
कोई नायाब गौहर न था
मैं कि आज़र न था
ये तो अच्छा हुआ
ऐ ख़ुदा
तू ने रक्खीं सलामत मिरी उँगलियाँ
नज़्म
इज़हार-ए-तशक्कुर
शमीम क़ासमी