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इतवार की दोपहर | शाही शायरी
itwar ki dopahar

नज़्म

इतवार की दोपहर

गीताञ्जलि राय

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इतवार की दोपहर तो हमेशा ही अच्छी होती है
बिल्कुल तुम्हारी तरह

बे-फ़िक्र बे-परवाह आज़ाद
मैं ने भी हमेशा इसे अपने ही तरीक़े से बिताया है

पर जाने क्यूँ
कुछ अर्से से जब भी ये सुकून भरा वक़्त अपने साथ बिताने की कोशिश की

तुम दूर-दराज़ के वक़्तों से निकल के चुप-चाप मेरे क़रीब बैठ जाते हो
मेरे हाथों की खुली किताब बंद कर के

अपने ही क़िस्से सुनाने लगते हो
दिसम्बर की सर्दी

बारिश की बूँदे
और इतवार की दोपहर

वही क़िस्सा जो तुम ने जिया था कभी
मेरे साथ

लग-भग हर हफ़्ते दोहराते हो
और मुझे एहसास भी नहीं होता कि मैं क़ैद हूँ

कुछ आज़ाद से लम्हों में हमेशा के लिए