EN اردو
इत्तिफ़ाक़ात | शाही शायरी
ittifaqat

नज़्म

इत्तिफ़ाक़ात

नून मीम राशिद

;

आज, इस साअत-ए-दुज़दीदा-ओ-नायाब में भी,
जिस्म है ख़्वाब से लज़्ज़त-कश-ए-ख़म्याज़ा तिरा

तेरे मिज़्गाँ के तले नींद की शबनम का नुज़ूल
जिस से ढल जाने को है ग़ाज़ा तिरा

ज़िंदगी तेरे लिए रस भरे ख़्वाबों का हुजूम
ज़िंदगी मेरे लिए काविश-ए-बेदारी है:

इत्तिफ़ाक़ात को देख
इस हसीं रात को देख

तोड़ दे वहम के जाल
छोड़ दे अपने शबिस्तानों को जाने का ख़याल,

ख़ौफ़-ए-मौहूम तिरी रूह पे क्या तारी है!
इतना बे-सर्फ़ा नहीं तेरा जमाल

इस जुनूँ-ख़ेज़ हसीं रात को देख!
आज, इस साअत-ए-दुज़दीदा-ओ-नायाब में भी,

तिश्नगी रूह की आसूदा न हो
जब तिरा जिस्म जवानी में है नीसान-ए-बहार

रंग-ओ-निकहत का फ़िशार!
फूल हैं, घास है, अश्जार हैं, दीवारें हैं

और कुछ साए कि हैं मुख़्तसर ओ तीरा-ओ-तार,
तुझ को क्या इस से ग़रज़ है कि ख़ुदा है कि नहीं?

देख पत्तों में लरज़ती हुई किरनों का नफ़ूज़
सरसराती हुई बढ़ती है रगों में जैसे

अव्वलीं बादा-गुसारी में नई तुंद शराब
तुझ को क्या इस से ग़रज़ है कि ख़ुदा है कि नहीं

कहकशाँ अपनी तमन्नाओं का है राह-गुज़ार
काश इस राह पे मिल कर कभी पर्वाज़ करें

इक नई ज़ीस्त का दर बाज़ करें!
आसमाँ दूर है लेकिन ये ज़मीं है नज़दीक

आ इसी ख़ाक को हम जल्वा-गह-ए-राज़ करें!
रूहें मिल सकती नहीं हैं तो ये लब ही मिल जाएँ,

आ इसी लज़्ज़त-ए-जावेद का आग़ाज़ करें!
सुब्ह जब बाग़ में रस लेने को ज़ंबूर आए

उस के बोसे से हों मदहोश समन और गुलाब
शबनमी घास पे दो पैकर-ए-यख़-बस्ता मिलें,

और ख़ुदा है तो पशेमाँ हो जाए!