तमाम लोग इब्तिदा में
एक दूसरे के सामने
हुजूम में दिखाई देने वाले कुछ निशाँ
महज़ अजनबी
फिर यका-यक मोजज़ा तुलूअ का
और एक रू-ए-आफ़्ताब
बादलों के पार से निकल के रू-ब-रू
ख़िराम-ए-नूर कू-ब-कू
पुराना शहर
वक़्त-ए-शाम
फैलता उमडता अजनबी हुजूम
हाव-हू के दरमियान मोजज़ा हुआ
और एक मुज़्तरिब हसीन रू-ए-दिल-गुदाज़
मेरे जिस्म ओ जाँ में देखते ही देखते समा गया
वो रौशनी था मौज-ए-आफ़्ताब था
बस इक नज़र में जैसे मैं ने उस को पा लिया
मैं दम-ब-ख़ुद सा रह गया
ये हादसा था वाक़िआ था कैसा इत्तिफ़ाक़ था
तुलू-ए-नूर के जिलौ में
इक तवील पुर-ख़तर सियाह रात
शहर में उतर गई
नज़्म
इत्तिफ़ाक़
बलराज कोमल