दयार-ए-ग़ैर में कोई जहाँ न अपना हो
शदीद कर्ब की घड़ियाँ गुज़ार चुकने पर
कुछ इत्तिफ़ाक़ हो ऐसा कि एक शाम कहीं
किसी इक ऐसी जगह से हो यूँही मेरा गुज़र
जहाँ हुजूम-ए-गुरेज़ाँ में तुम नज़र आ जाओ
और एक एक को हैरत से देखता रह जाए!
नज़्म
इत्तिफ़ाक़
अख़्तर-उल-ईमान