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इस्तिआरे ढूँडता रहता हूँ | शाही शायरी
istiare DhunDta rahta hun

नज़्म

इस्तिआरे ढूँडता रहता हूँ

सरमद सहबाई

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इस्तिआरे ढूँढता रहता हूँ मैं
धूप में उड़ती सुनहरी धूल के

भेद सत-रंगी तिलिस्मी फूल के
जाने किस के पाँव की मद्धम धमक

ध्यान की दहलीज़ पर सुनता हूँ मैं
इस्तिआरे ढूँढता रहता हूँ मैं

जाने किस रंगत को छू कर
शहर में आती है शाम

भूल जाता हूँ घरों के रास्ते लोगों के नाम
एक अन-देखे नगर का रास्ता

इस सफ़र में पूछता रहता हूँ मैं
इस्तिआरे ढूँढता रहता हूँ मैं

ग़ैब के शहरों से आती है हवा
फूल सा उड़ता है तेरे जिस्म का

वस्ल के दर खोलती हैं उँगलियाँ
ख़ून में घुलता है तेरा ज़ाइक़ा

आते जाते मौसमों की ओट में
तेरा चेहरा देखता रहता हूँ मैं

इस्तिआरे ढूँढता रहता हूँ मैं