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इसी दो-राहे पर | शाही शायरी
isi do-rahe par

नज़्म

इसी दो-राहे पर

साहिर लुधियानवी

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अब न उन ऊँचे मकानों में क़दम रखूँगा
मैं ने इक बार ये पहले भी क़सम खाई थी

अपनी नादार मोहब्बत की शिकस्तों के तुफ़ैल
ज़िंदगी पहले भी शर्माई थी झुनझुलाई थी

और ये अहद किया था कि ब-ईं हाल-ए-तबाह
अब कभी प्यार भरे गीत नहीं गाऊँगा

किसी चिलमन ने पुकारा भी तो बढ़ जाऊँगा
कोई दरवाज़ा खुला भी तो पलट आऊँगा

फिर तिरे काँपते होंटों की फ़ुसूँ-कार हँसी
जाल बुनने लगी बुनती रही बुनती ही रही

मैं खिंचा तुझ से मगर तू मिरी राहों के लिए
फूल चुनती रही चुनती रही चुनती ही रही

बर्फ़ बरसाई मिरे ज़ेहन ओ तसव्वुर ने मगर
दिल में इक शोला-ए-बे-नाम सा लहरा ही गया

तेरी चुप-चाप निगाहों को सुलगते पा कर
मेरी बेज़ार तबीअत को भी प्यार आ ही गया

अपनी बदली हुई नज़रों के तक़ाज़े न छुपा
मैं इस अंदाज़ का मफ़्हूम समझ सकता हूँ

तेरे ज़र-कार दरीचों की बुलंदी की क़सम
अपने इक़दाम का मक़्सूम समझ सकता हूँ

अब न उन ऊँचे मकानों में क़दम रखूँगा
मैं ने इक बार ये पहले भी क़सम खाई थी

इसी सरमाया ओ अफ़्लास के दोराहे पर
ज़िंदगी पहले भी शर्माई थी झुनझूलाई थी