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इसबात | शाही शायरी
isbaat

नज़्म

इसबात

मुज़फ़्फ़र इरज

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वो एक लम्हा कि
लम-यज़ल ने अज़ल की ख़ुश-बख़्त साअतों का ख़मीर ले कर

हमारे ख़ूँ की रुतूबतों में भिगो के
इक मुनहानी से पैकर में ढाल कर

धीरे धीरे
आज़माइश के मरहलों से गुज़ार कर

जिस को दम किया था
वो एक लम्हा कि तरह जिस कि

समुंदरों की रिवायतों से
हवाओं की सनसनाहटों की हिकायतों से

ख़लीक़ मिट्टी की सोंधी सोंधी अमानतों से
झुलसते सूरज की बरगुज़ीदा तमाज़तों से

अमल में आई वो एक लम्हा कि
सब अवामिल असीर कर के

ज़माँ की यक-रंग सरहदों को फलाँग कर जब
मकाँ की पेचीदा वुसअतों पर रक़म हुआ था

अमीं है सच्ची इबादतों का
हमारे माथे पे जो लिखे हैं

हलीफ़ है सारी अज़्मतों का सदाक़तों का
हमारे ख़ूँ में जो रच गई हैं

हरीफ़ है सब कुदूरतों का, अदावतों का, सऊबतों का
हमारी बंजर ज़मीं के सीने से जो उगी हैं

अज़ीम मरकज़ है ना-शुनीदा इनायतों का, मोहब्बतों का, रिफ़ाक़तों का, मुरव्वतों का
हमारी रूहों में जो बसी हैं

हम अपने ख़ालिक़ की कौन सी नेमतों से इंकार कर सकेंगे
कि सज्दा-गाह-ए-यक़ीं से

फूटी हुई किरन में असीर हैं हम
बुलंदियों के सफ़ीर हैं हम

गुज़िश्ता सदियों के मोजज़ों की नज़ीर हैं हम
अज़ीम दानिश को हम ने

हर्फ़ ओ नवा की रंगीं रिदा अता की
ज़रूरतों की क़बा अता की

वो एक लम्हा कि
आरज़ू में अज़ल से जिस की

हक़ीक़तों की
झुलसती दहलीज़ पे

हम ने तुम ने
मुबाशरत के तमाम आसन ही आज़माए

अगर हमारे दिलों में दीवार-ए-जाँ उठाए
मगर ये मुमकिन ही किस तरह है कि

हम मोहब्बत के बीज बो कर अदावतों के शजर उगाएँ
जो एक लम्हा हम

अपने ख़ालिक़ के नाम मंसूब कर चुके हैं
वो एक लम्हा अगर न आए

मगर ये इम्काँ की सरहदों से गुरेज़ होगा
गुरेज़ जो आसमाँ से उतरे

किसी सहीफ़े की वा-जबीं पर
रक़म नहीं है

हम अपने ख़ालिक़ की कौन सी नेमतों से इंकार कर सकेंगे