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इंक़लाब | शाही शायरी
inqalab

नज़्म

इंक़लाब

जावेद कमाल रामपुरी

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रात ढलती है सुब्ह होती है
खोल दो अब तो उठ के दरवाज़ा

इस अँधेरी सी कोठरी में आज
वक़्त आया है रहने बसने को

ऐसे मेहमाँ का क्या भरोसा है
ये दबे पाँव लौट जाएगा