रात ढलती है सुब्ह होती है
खोल दो अब तो उठ के दरवाज़ा
इस अँधेरी सी कोठरी में आज
वक़्त आया है रहने बसने को
ऐसे मेहमाँ का क्या भरोसा है
ये दबे पाँव लौट जाएगा
नज़्म
इंक़लाब
जावेद कमाल रामपुरी
नज़्म
जावेद कमाल रामपुरी
रात ढलती है सुब्ह होती है
खोल दो अब तो उठ के दरवाज़ा
इस अँधेरी सी कोठरी में आज
वक़्त आया है रहने बसने को
ऐसे मेहमाँ का क्या भरोसा है
ये दबे पाँव लौट जाएगा