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इंक़लाब | शाही शायरी
inqalab

नज़्म

इंक़लाब

असरार-उल-हक़ मजाज़

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छोड़ दे मुतरिब बस अब लिल्लाह पीछा छोड़ दे
काम का ये वक़्त है कुछ काम करने दे मुझे

तेरी तानों में है ज़ालिम किस क़यामत का असर
बिजलियाँ सी गिर रही हैं ख़िर्मन-ए-इदराक पर

ये ख़याल आता है रह रह कर दिल-ए-बेताब में
बह न जाऊँ फिर तिरे नग़्मात के सैलाब में

छोड़ कर आया हूँ किस मुश्किल से मैं जाम-ओ-सुबू!
आह किस दिल से किया है मैं ने ख़ून-ए-आरज़ू

फिर शबिस्तान-ए-तरब की राह दिखलाता है तू
मुझ को करना चाहता है फिर ख़राब-ए-रंग-ओ-बू

मैं ने माना वज्द में दुनिया को ला सकता है तू
मैं ने ये माना ग़म-ए-हस्ती मिटा सकता है तू

मैं ने ये माना ग़म-ए-हस्ती मिटा सकता है तू
मैं ने माना तेरी मौसीक़ी है इतनी पुर-असर

झूम उठते हैं फ़रिश्ते तक तिरे नग़्मात पर
हाँ ये सच है ज़मज़मे तेरे मचाते हैं वो धूम

झूम जाते हैं मनाज़िर, रक़्स करते हैं नुजूम
तेरे ही नग़्मे से वाबस्ता नशात-ए-ज़िंदगी

तेरे ही नग़्मे से कैफ़-ओ-इम्बिसात-ए-ज़िंदगी
तेरी सौत-ए-सरमदी बाग़-ए-तसव्वुफ़ की बहार

तेरे ही नग़्मों से बे-ख़ुद आबिद-ए-शब-ज़िंदा-दार
बुलबुलें नग़्मा-सरा हैं तेरी ही तक़लीद में

तेरे ही नग़्मों से धूमें महफ़िल-ए-नाहीद में
मुझ को तेरे सेहर-ए-मौसीक़ी से कब इंकार है

मुझ को तेरे लहन-ए-दाऊदी से कब इंकार है
बज़्म-ए-हस्ती का मगर क्या रंग है ये भी तो देख

हर ज़बाँ पर अब सला-ए-जंग है ये भी तो देख
फ़र्श-ए-गीती से सकूँ अब माइल-ए-परवाज़ है

अब्र के पर्दों में साज़-ए-जंग की आवाज़ है
फेंक दे ऐ दोस्त अब भी फेंक दे अपना रुबाब

उठने ही वाला है कोई दम में शोर-ए-इंक़लाब
आ रहे हैं जंग के बादल वो मंडलाते हुए

आग दामन में छुपाए ख़ून बरसाते हुए
कोह-ओ-सहरा में ज़मीं से ख़ून उबलेगा अभी

रंग के बदले गुलों से ख़ून टपकेगा अभी
बढ़ रहे हैं देख वो मज़दूर दर्राते हुए

इक जुनूँ-अंगेज़ लय में जाने क्या गाते हुए
सर-कशी की तुंद आँधी दम-ब-दम चढ़ती हुई

हर तरफ़ यलग़ार करती हर तरफ़ बढ़ती हुई
भूक के मारे हुए इंसाँ की फ़रियादों के साथ

फ़ाक़ा-मस्तों के जिलौ में ख़ाना-बर्बादों के साथ
ख़त्म हो जाएगा ये सरमाया-दारी का निज़ाम

रंग लाने को है मज़दूरों का जोश-ए-इंतिक़ाम
गिर पड़ेंगे ख़ौफ़ से ऐवान-ए-इशरत के सुतूँ

ख़ून बन जाएगी शीशों में शराब-ए-लाला-गूँ
ख़ून की बू ले के जंगल से हवाएँ आएँगी

ख़ूँ ही ख़ूँ होगा निगाहें जिस तरफ़ भी जाएँगी
झोंपड़ों में ख़ूँ, महल में ख़ूँ, शबिस्तानों में ख़ूँ

दश्त में ख़ूँ, वादियों में ख़ूँ, बयाबानों में ख़ूँ
पुर-सुकूँ सहरा में ख़ूँ, बेताब दरियाओं में ख़ूँ

दैर में ख़ूँ, मस्जिद में ख़ूँ, कलीसाओं में ख़ूँ
ख़ून के दरिया नज़र आएँगे हर मैदान में

डूब जाएँगी चटानें ख़ून के तूफ़ान में
ख़ून की रंगीनियों में डूब जाएगी बहार

रेग-ए-सहरा पर नज़र आएँगे लाखों लाला-ज़ार
ख़ून से रंगीं फ़ज़ा-ए-बोस्ताँ हो जाएगी

नर्गिस-ए-मख़मूर चश्म-ए-ख़ूँ-फ़िशाँ हो जाएगी
कोहसारों की तरफ़ से ''सुर्ख़-आंधी'' आएगी

जा-ब-जा आबादियों में आग सी लग जाएगी
तोड़ कर बेड़ी निकल आएँगे ज़िंदाँ से असीर

भूल जाएँगे इबादत ख़ानक़ाहों में फ़क़ीर
हश्र-दर-आग़ोश हो जाएगी दुनिया की फ़ज़ा

दौड़ता होगा हर इक जानिब फ़रिश्ता मौत का
सुर्ख़ होंगे ख़ून के छींटों से बाम-ओ-दर तमाम

ग़र्क़ होंगे आतिशीं मल्बूस में मंज़र तमाम
इस तरह लेगा ज़माना जंग का ख़ूनीं सबक़

आसमाँ पर ख़ाक होगी, फ़र्क़ पर रंग-ए-शफ़क़
और इस रंग-ए-शफ़क़ में बा-हज़ाराँ आब-ओ-ताब!

जगमगाएगा वतन की हुर्रियत का आफ़्ताब