एक मुर्दा था जिसे मैं ख़ुद अकेला
अपने कंधों पर उठाए
आज आख़िर दफ़्न कर के आ गया हूँ
बोझ भारी था मगर अपनी रिहाई के लिए
बेहद ज़रूरी था कि अपने-आप ही उस को उठाऊँ
और घर से दूर जा कर दफ़्न कर दूँ
ये हक़ीक़त थी कि कोई वाहिमा था
पर ये बदबू-दार लाशा
सिर्फ़ मुझ को ही नज़र आता था, जैसे
एक नादीदा छलावा हो मिरे पीछे लगा हो
मेरे कुँबे के सभी अफ़राद उस की
हर जगह मौजूदगी से बे-ख़बर थे
सिर्फ़ मैं ही था जिसे ये
टिकटिकी बाँधे हुए बे-नूर आँखों से हमेशा घूरता था
आज जब मैं
अपने माज़ी का ये मुर्दा दफ़्न कर के आ गया हूँ
क्यूँ ये लगता है कि मेरा
हाल भी जैसे तड़पता लम्हा लम्हा मर रहा हो
और मुस्तक़बिल में जब ये हाल भी माज़ी बनेगा
मुझ को फिर इक बार इस मुर्दे को कंधों पर उठाए
दफ़्न करने के लिए जाना पड़ेगा

नज़्म
इन्ना लिल्लाही ओ इन्ना इलैहि राजेऊन
सत्यपाल आनंद