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इन्फ़िरादियत परस्त | शाही शायरी
infiradiyat parast

नज़्म

इन्फ़िरादियत परस्त

शकेब जलाली

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एक इंसाँ की हक़ीक़त क्या है
ज़िंदगी से उसे निस्बत क्या है

आँधी उट्ठे तो उड़ा ले जाए
मौज बिफरे तो बहा ले जाए

एक इंसाँ की हक़ीक़त क्या है
डगमगाए तो सहारा न मिले

सामने हो प किनारा न मिले
एक इंसाँ की हक़ीक़त क्या है

कुंद तलवार क़लम कर डाले
सर्द-शो'ला ही भसम कर डाले

ज़िंदगी से उसे निस्बत क्या है
एक इंसाँ की हक़ीक़त क्या है