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इम्तिहान | शाही शायरी
imtihan

नज़्म

इम्तिहान

सय्यद मोहम्मद जाफ़री

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इम्तिहाँ सर पर है लड़के लड़कियाँ हैं और किताब
डेट-शीट आई तो गोया आ गया यौम-उल-हिसाब

सिर्फ़ इक काग़ज़ के पुर्ज़े से हुआ ये इंक़लाब
ख़ुद-ब-ख़ुद हर इक शरारत का हुआ है सद्द-ए-बाब

पहले थीं वो शोख़ियाँ जो आफ़त-ए-जाँ हो गईं
''लेकिन अब नक़्श-ओ-निगार-ए-ताक़-ए-निस्याँ हो गईं''

वक़्त रटने के लिए कम रह गया ज़्यादा है काम
साल भर जिन को न देखा वो ख़ुलासे नेक-नाम

सामने रक्खे हैं उन को झुक के करते हैं सलाम
उन की पूजा ही में सारा वक़्त होता है तमाम

टेलीविज़न भी नहीं ग़ाएब हुए हैं सारे खेल
डाल कर कोल्हू में बच्चों को निकालो उन का तेल

आज-कल भूले हुए हैं सब इलेक्शन और डिबेट
प्रैक्टीकल की कापियों के आज-कल भरते हैं पेट

हाज़िरी अब कौन बोले कौन अब आएगा लेट
कॉलेज और स्कूल हैं सुनसान ख़ाली इन के गेट

बंद है कमरे के अंदर गर्दिश-ए-लैल-ओ-नहार
क्या ख़बर आई ख़िज़ाँ कब कब गई फ़स्ल-ए-बहार

इम्तिहाँ का भूत है या है क़यामत का समाँ
अम्मी और अब्बा से छुप कर रो रही हैं लड़कियाँ

कहते हैं लड़के किया करते थे जो अटखेलियाँ
''याद थीं हम को भी रंगा-रंग बज़्म-आराइयाँ''

अब हिरन की तरह से भूले हुए हैं चौकड़ी
इस क़दर रटना पड़ा है जल उठी है खोपड़ी

हाल पर बच्चों के हैं बेहद परेशाँ वालदैन
साथ में औलाद के उन का उड़ा जाता है चैन

गरचे है तालीम और रटने में बोद-उल-मशरिक़ैन
सोचते हैं वो कि अच्छा ज़ेहन है ख़ालिक़ की देन

क्या ख़बर थी इस तरह जी का ज़ियाँ हो जाएगा
''यानी ये पहले ही नज़्र-ए-इम्तेहाँ हो जाएगा''

रात भर जागेंगे वो जो साल भर सोते रहे
काटने जाते हैं गंदुम गरचे जौ बोते रहे

क्या तवक़्क़ो उन से रक्खें फ़ेल जो होते रहे
नक़्ल कर के दाग़ को दामन से जो धोते रहे

नक़्श फ़रियादी है इन की शोख़ी-ए-तहरीर का
म'अरका होता है अब तदबीर का तक़दीर का

जो सवाल इमपोरटेंट आता है हर इक बाब में
ग़ौर से देखा है उस को दिन-दहाड़े ख़्वाब में

हो गया हूँ इस लिए बद-नाम मैं असहाब में
आउट कर डाला है पेपर आलम-ए-असबाब में

कुछ तो है आख़िर जो गेस पेपर में आया याद था
जिस ने पेपर सेट किया है वो मिरा उस्ताद था