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इक हर्फ़-ए-फ़सुर्दा दाग़ में है | शाही शायरी
ek harf-e-fasurda dagh mein hai

नज़्म

इक हर्फ़-ए-फ़सुर्दा दाग़ में है

अख़्तर हुसैन जाफ़री

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इक हर्फ़-ए-फ़सुर्दा दाग़ में है
इक बात बुझे चराग़ में है

इक नाम लहू की गर्दिशों में
तूफ़ान में डोलता सफ़ीना

डूबे न भँवर के पार उतरे
इक शाम कि जिस के बाम-ओ-दर को

हारी हुई सुब्ह से शिकायत
रूठे हुए चाँद की तमन्ना

इक राह-नवर्द जो ये चाहे
पाँव न हद-ए-वफ़ा से निकले

सर से न सफ़र का बार उतरे