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इक अधूरी दास्तान | शाही शायरी
ek adhuri dastan

नज़्म

इक अधूरी दास्तान

अबु बक्र अब्बाद

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वो इक लड़की
जो ख़ामोशी में भी अक्सर चहकती थी

सुब्ह से शाम तक और रात में भी बातें करती थी
सभों को शाद रखती थी बहुत मसरूर रहती थी

कभी बादल कभी ख़ुश्बू कभी गुल-रंग की सूरत
बरसती थी बिखरती थी बदलती थी

मगर महसूस होता था हमेशा पास रहती है
जो वो अंजान बनती थी

अज़ीज़ अज़ जान लगती थी
कभी चंचल हवा पंछी के पंखों और नदी के लम्स की मानिंद

उतर आती थी दिल में रूह को पुर-कैफ़ रखती थी
कभी होंटों के रस आँखों की शबनम गालों के ख़ुश-रंग मौसम से

नशे को झील को गुलबुन को भी वो मात देती थी
मैं उस के लम्स से रुख़्सारों की धीमी तमाज़त गर्म साँसों से

बहुत क़ुर्बत बहुत अपनाइयत महसूस करता था
ज़ेहन के पास पाता था उसे अपना समझता था

मगर फिर क्या हुआ इक दिन कि इक बद-बख़्त डाइन ने
ख़ुदा जाने कहाँ भेजा कि सब ला-इल्म हैं उस से

मगर पहुँचे हुए दरवेश ने ये भेद खोला है
बसेरा उस का अब है चाँदनी के कुंज

सितारों के बगीचों में
वो उन की सैर करती है मगर ग़मगीन रहती है

उसे सब वहम कहते हैं ख़िलाफ़-ए-अक़्ल कहते हैं
मगर पक्का यक़ीं है जब कोई टूटा हुआ तारा

ज़मीं को चूमने आएगा वो भी साथ आएगी
फिर अपने साथ वो ख़ुशियों के सदहा गुल भी लाएगी

सो हर शब जागता हूँ
राह में आकाश की आँखें बिछाता हूँ

मगर जो तारा आता है ज़मीं तक आ नहीं पाता