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हुवश-शाफ़ी | शाही शायरी
huwash-shafi

नज़्म

हुवश-शाफ़ी

सरशार सिद्दीक़ी

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अगर कभी ये गुमान गुज़रा
कि ज़िंदगी तल्ख़ हो रही है

तो इस मसीहा-नफ़स को ढूँडा
जो इस मरज़ का तबीब हाज़िक़ है

जिस के शीरीं लबों में
नमकीन आरिज़ों में

ग़ज़ाल आँखों की गहरी झीलों में
आब-ए-हैवाँ छलक रहा है

जो मेरी तन्हाई का मुदावा
मिरे मरज़ के लिए दवा है

कि शर्बत-ए-दीद ही तो
इन तल्ख़-कामियों के लिए शिफ़ा है