वो 'सारा'-अहमदी की दफ़-नवाज़ी
और वो इश्क़-ए-मौलवी
फिर यूँ हुआ
वो तक-तक-ए-दफ़
महव होती जा रही थीं
हक़ हक़-ए-हक़ में
ये फ़ैज़ान-ए-निगाह-ए-'शम्स' था या
जज़्ब-ए-क़ल्ब-ए-मौलवी था
ब'अद-अज़ाँ
जो कुछ भी था वो सरमदी था
नज़्म
हुवल-इश्क़
शहराम सर्मदी