EN اردو
हूक | शाही शायरी
huk

नज़्म

हूक

ख़ुर्शीद रिज़वी

;

जब किताबों के नविश्तों से फिसल कर
मिरी दरमांदा निगाह

चार-सू फैले हुए सफ़्हा-ए-अय्याम पे जा पड़ती है
दिल में इक हूक सी उठती है

उभर आते हैं दुखते हुए जांकाह सवाल
फिर इसी हूक के लहजे में ख़ुदा बोलता है

ज़िंदगानी की कड़ी शर्तें हैं
ये इबादत है तुम्हारी कि मिरे बख़्शे हुए दुख झेलो

इन परिंदों का, बहाइम का तसव्वुफ़ देखो
कैसे मिन्क़ार-शिकस्ता ताइर

दाने दाने को तरस जाता है दानों में घिरा
मुश्त-ए-पर ख़ाक में ढल जाती है रफ़्ता रफ़्ता

जान खो देने के बे-ज़ार इरादे के बग़ैर
किसी शिकवे के बग़ैर''

और ये मुझ से बड़ा दर्स समझ में नहीं आता मेरी
किस लिए उस की मशिय्यत ने किया दुख पैदा

सोचता हूँ तो ढलक आते हैं अश्कों में सवाल
है मिरी सोच मिरे अपने लिए एक अज़ाब

उस पे आएद ही नहीं मेरे सवालों का जवाब