हुस्न तो बस दो तरह का ख़ूब लगता है मुझे
आग में जलता हुआ
या बर्फ़ में सोया हुआ
दरमियाँ में कुछ नहीं
सिर्फ़ हल्का सा अचम्भा अक्स सा उड़ता हुआ
इक ख़याल-अंगेज़ क़िस्सा अपनी आधी मौत का
इक अलम-अफ़ज़ा फ़साना ख़ून-ए-दिल के शौक़ का
इक किनारे से सदा दो तो वो चलती जाएगी
दूर तक अपने गुनह पर हाथ मलती जाएगी
नज़्म
हुस्न में गुनाह की ख़्वाहिश
मुनीर नियाज़ी