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हिसार-ए-तीरगी | शाही शायरी
hisar-e-tirgi

नज़्म

हिसार-ए-तीरगी

सलमान अंसारी

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ख़्वाहिशों के लम्स में डूबी हुई
दाएरों में घूमती तन्हाइयाँ

इहतिबास-ओ-जब्र की तारीक शब
मुज़्तरिब रंजूर गंदुम-गूँ सहर

ऐसा लगता है अँधेरा कह रहा हो ज़ेर-ए-लब
ऐ कबूद-ओ-कोर-चश्म ऐ लईन

तुझ को बख़्शी थी किरन अज़-राह-ए-दिल-सोज़ी मगर
तू समझता है कि ये जूद-ओ-सख़ा लुत्फ़-ओ-अतफ़

तेरा इस्तेहक़ाक़ है और तू ख़ुदा-ए-आफ़ताब
जल बुझे मुद्दत हुई तेरी ख़ुदाई के दिए

भाग जितना भागना है ज़ुल्मतों के क़हर से
हो सके तो फिर जला बिसरी मोहब्बत के चराग़

मर्ग-बार-आलम में इक उम्मीद की मुबहम किरन
एक बुझते दीप का मद्धम हिरासाँ इर्तिआश

कौन जाने इन चराग़ों की ज़िया कब तक चले