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हिसार-अंदर-हिसार | शाही शायरी
hisar-andar-hisar

नज़्म

हिसार-अंदर-हिसार

अकबर हैदराबादी

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मेरे इर्द-गर्द इक हिसार है
इक हिसार जिस के गीर-ओ-दार मैं

बे-अमाँ ग़ुबार में
मेरा जिस्म मेरी ज़ात

तार तार है
वक़्त एक लफ़्ज़ जो

असीर अपने मानवी बहिश्त में
वक़्त इक तसलसुल-ए-ख़याल जिस के दूसरे

इक ख़ला-ए-बे-कराँ की जाँ-कशाँ गिरफ़्त है
इस हिसार से अगर निकल सकूँ

(जिस्म मुंजमिद चटान बर्फ़ की मैं अगर पिघल सकूँ)
रेज़ा रेज़ा जिस्म को समेट कर

इक वजूद-ए-ताज़ा-तर में ढल सकूँ
फिर न जाने कौन सा ग़ुबार मुझ को घेर ले

कौन सा हिसार मुझ को घेर ले