तेरे होंटों पे तबस्सुम की वो हल्की सी लकीर
मेरे तख़्ईल में रह रह के झलक उठती है
यूँ अचानक तिरे आरिज़ का ख़याल आता है
जैसे ज़ुल्मत में कोई शम्अ भड़क उठती है
तेरे पैराहन-ए-रंगीं की जुनूँ-ख़ेज़ महक
ख़्वाब बन बन के मिरे ज़ेहन में लहराती है
रात की सर्द ख़मोशी में हर इक झोंके से
तेरे अन्फ़ास तिरे जिस्म की आँच आती है
मैं सुलगते हुए राज़ों को अयाँ तो कर दूँ
लेकिन उन राज़ों की तशहीर से जी डरता है
रात के ख़्वाब उजाले में बयाँ तो कर दूँ
उन हसीं ख़्वाबों की ताबीर से जी डरता है
तेरी साँसों की थकन तेरी निगाहों का सुकूत
दर-हक़ीक़त कोई रंगीन शरारत ही न हो
मैं जिसे प्यार का अंदाज़ समझ बैठा हूँ
वो तबस्सुम वो तकल्लुम तिरी आदत ही न हो
सोचता हूँ कि तुझे मिल के मैं जिस सोच में हूँ
पहले उस सोच का मक़्सूम समझ लूँ तो कहूँ
मैं तिरे शहर में अंजान हूँ परदेसी हूँ
तेरे अल्ताफ़ का मफ़्हूम समझ लूँ तो कहूँ
कहीं ऐसा न हो पाँव मिरे थर्रा जाएँ
और तिरी मरमरीं बाँहों का सहारा न मिले
अश्क बहते रहें ख़ामोश सियह रातों में
और तिरे रेशमी आँचल का किनारा न मिले
नज़्म
हिरास
साहिर लुधियानवी